वक्त की आंच में पत्थर भी पिघल जाते हैं,
कहकहे टूटकर अश्कों में बह जाते हैं।
उम्र भर कौन किसे याद रखता है मेरे दोस्त,
वक्त के साथ तो ख्यालात भी बदल जाते हैं।।
मगर जो साथ देता है वही जीवन भर याद रहता है। तो दोस्तों एक था कछुआ और एक था खरगोश। दोनों में एक दिन होड़ लगी कि कौन तेज दौड़ता है। एक निश्चित स्थान से दौड़ शुरू कर बहुत दूर खड़े एक पेड़ के चक्कर लगाकर वापस आना था। जो पहले दौड़ पूरी करके आएगा वही जीतेगा। तो साहब खरगोश ने तो दौड़ शुरू होते ही छलांग भरनी शुरू की और वह बहुत आगे निकल गया दूसरी ओर बेचारा कछुआ रेंग रेंग कर थोड़ा सा ही चल पाया था। सो खरगोश ने सोचा इस तरह ये कछुआ तो शाम तक भी पहुंचने से रहा मैं पहले दौड़ पूरी कर के क्या करूंगा। यही सोच कर खरगोश एक पेड़ की छाया में बैठ गया और बैठे-बैठे उसे नींद आ गई। नींद में वह अपनी जीत के सपने देखने लगा। दूसरी ओर कछुआ अपनी मंद गति से धीरे धीरे गंतव्य की ओर बढ़ता रहा। जब तक खरगोश की नींद खुली तब तक कछुआ दौड़ पूरी करके निर्धारित स्थान पर पहुंच चुका था।
खैर यहां तक की कहानी तो आप ने सुनी ही होगी। अब आगे की कहानी सुनिए,,, तो साहब! खरगोश जब अपने घर गया तो उसके समाज के लोगों ने उसे खूब धिक्कारा । और बोले कि तुमने आज खरगोशों के समाज की नाक कटवा दी है। तुम एक कछुए से हार कर आए हो। अब हम जंगल में किसको क्या मुंह दिखाएंगे। बेचारा खरगोश लज्जित होते हुए बोला कि मुझे नींद आ गई और मैं हार गया। अब क्या किया जा सकता है? तो दूसरे खरगोश बोले कि बात यहीं खत्म नहीं होती कल सुबह तुम उस कछुए को फिर से दौड़ के लिए ललकारो और इस बार ध्यान रखना सोना मत तुम्हें हर हाल में जीतना है ताकि हम खरगोश समाज के ऊपर लगे हुए इस हार के कलंक को मिटा सकें।
दूसरे दिन सवेरे ही उस खरगोश ने कछुए को फिर से ललकारा और कहा कि एक बार फिर से दौड़ करते हैं। कछुआ भी दौड़ के लिए तैयार हो गया जंगल के जानवरों में भी कौतूहल था सो हजारों जानवरों के सामने फिर से एक बार खरगोश और कछुए की दौड़ शुरू हुई। इस बार खरगोश सोया नहीं और थोड़ी देर में वह जीत चुका था। अब सारा खरगोश समाज जीत का जश्न मना रहा था वहीं कछुए समाज में शोक की लहर फैल गी। सभी कछुए मिलकर उस कछुए को लताड़ने लगे । बोले अरे मूर्ख जब तुम एक बार किसी भी तरह जीत गए तो तुम्हें दूसरी बार दौड़ के लिए हां करने की कहां जरूरत थी। बेचारा कछुआ शर्मसार होता हुआ बोला कि भाई अब जो हुआ सो हुआ अब क्या किया जा सकता है? तो कछुए बोले कि कल तुम उस खरगोश को फिर से दौड़ के लिए ललकारो और इस बार दौड़ का रास्ता हम तय करेंगे।
तो जनाब अगले दिन सवेरे कछुआ समाज के निर्णय के मुताबिक उस कछुए ने खरगोश को फिर से दौड़ के लिए ललकारा खरगोश समाज तो उनकी मूर्खता पर हंसने लगा वह बोले अरे मूर्ख कछुओं क्या तुम कल की हार को भूल गए जो आज फिर से अपनी बेइज्जती करवाने आए हो। खैर,,, कछुआ और खरगोश एक बार फिर दौड़ के लिए मैदान में खड़े थे। इस बार कछुओं के मुखिया ने दौड़ का रास्ता तय करते हुए कहा कि यहां से दौड़ते हुए नदी पार के उस पीपल के चक्कर लगाकर जो पहले वापस आएगा वही विजेता होगा। दौड़ शुरू होते ही खरगोश तेजी से दौड़ा परंतु वह नदी के पास जाकर रुक गया क्योंकि खरगोश को पानी में तैरना नहीं आता दूसरी तरफ कछुआ धीरे-धीरे रेंगते हुए नदी तक पहुंचा और आसानी से तैरता हुआ नदी पार करके पीपल के पेड़ पर हाथ लगाकर आ गया। अब एक बार फिर से कछुआ समाज में जीत की खुशियां मनाई जा रही थी परंतु खरगोश समाज ने यह कह कर संतोष कर लिया कि भाई दौड़ में हालांकि हमारा कोई मुकाबला नहीं कर सकता परंतु जब बात नदी पार करने की हो तो यह हमारे बस की बात ही नहीं है।
बात यहीं खत्म नहीं हुई उस कछुए ने फिर से घोषणा कर दी कि एक बार दौड़ और होगी। परंतु इस बार हम अकेले नहीं दौडेंगे बल्कि जंगल के सारे खरगोश और सारे कछुए इस दौड़ में हिस्सा लेंगे दौड़ का रास्ता यही रहेगा परंतु शर्त यह है की दौड़ में एक कछुआ और एक खरगोश मिलकर अपनी अपनी जोड़ी बनाएंगे और दौड़ेंगे। जिस कछुए और खरगोश की जोड़ी सबसे पहले आएगी उन्हें विजेता माना जाएगा । अब तो जंगल के सारे जानवरों में अपार कोतुहल था हर जानवर की जुबां पर बस कल होने वाली दौड़ की चर्चा थी।
अगले दिन सवेरे निर्धारित समय पर सैकड़ों खरगोश और सैकड़ों कछुए अपनी अपनी जोड़ी बनाकर दौड़ की शुरुआती रेखा पर खड़े थे अब तक दौड़ने वाले उस कछुए और खरगोश ने अपनी जोड़ी बना रखी थी । ज्यों ही दौड़ शुरू हुई सारे खरगोश तेजी से दौड़ते हुए आगे निकल गए और कछुए पीछे रह गए परंतु वह खरगोश अपने साथी कछुए को अपनी पीठ पर बिठाकर दौड़ रहा था जब खरगोशों ने उन दोनों को देखा तो वे भी वापस मुड़कर अपने साथी कछुओं को पीठ पर बिठाकर लाने लगे तब तक यह दोनों मित्र नदी के किनारे पहुंच चुके थे। अब कछुए ने खरगोश को अपनी पीठ पर बिठाया और तेजी से नदी पार की जब तक बाकी कछुए और खरगोश नदी तक पहुंचे तब तक इन दोनों की जोड़ी नदी पार करके पीपल के पेड़ तक पहुंच चुके थे।
तो साथियों असली जीत साथ लेकर चलने में है महज किसी से आगे निकल जाना ही असली जीत नहीं होती । कवि संजय सांवरा लिखते हैं -
यूं अकेले बहुत दिन जिए, संग तन्हाइयों को लिए
मन तो बेचैन है फिर कहो होंठ कब तक रहोगे सिएं
लव तो खोलो जरा कुछ तो बोलो जरा
दूर हो जाए मन का भरम।।
(दोस्तों पोस्ट आपको कैसी लगी कृपया कमेंट बाक्स में अवश्य बताएं।)
आपका स्नेहाकंक्षी -
सांवर चौधरी
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आपके संबल हेतु हार्दिक धन्यवाद।