किसी की अदा किसी की मुस्कान में जादू होता है,
किसी के संगीत तो किसी के साज में जादू होता है ।
मुसाफिर बंजारे भी सुनकर रूक जाते हैं अक्सर,
जिनके दिल से निकली आवाज में जादू होता है। ।
एक,,,,,
वर्ष 2001,,,,गोवर्नमेंट बांगड़ कॉलेज डीडवाना के असेम्बली हाल में एन.एस.एस. (राष्ट्रीय सेवा योजना) की बैठक प्राचार्य जी की अध्यक्षता में चल रही है। प्राचार्य जी (माफी चाहूँगा उस गुणग्राही सज्जन पुरूष सरदार जी का नाम स्मृति में नहीं रहा) ने घोषणा की - " आज सभी स्वयंसेवक कॉलेज की एक-एक समस्या बताएंगे। और हां एक समस्या/कमी तो हर एक को बतानी ही होगी। "
अब प्राचार्य जी के आदेश की पालना में क्रमशः बारी बारी स्वयं सेवक खड़े होकर समस्या बता रहे हैं ।
एक- "सर कॉलेज के बगीचे का सुधार होना चाहिए।"
दो- "सर पेयजल के कुछ नल टूटे/खराब हैं।"
तीन- "सर कॉलेज परिसर में पेड़ और अधिक होने चाहिए।"
इसी प्रकार चार,पांच,छः,,,,,,कुछ उन्ही बातों का दोराहन कर रहे हैं तो कुछ नयी समस्याएं गिना रहे हैं। प्राचार्य जी सभी समस्याओं को ध्यान पूर्वक सुन रहे हैं, जो उचित लग रही है उन्हें बाबूजी को नोट करने के लिए कह रहे हैं और जो अनुचित लगे उसका जवाब भी दे रहे हैं।
कोई दस-बारह स्टूडेंट्स के बाद जिस लड़के का नम्बर आएगा वो चिंतन में डूबा हुआ है। कॉलेज की एक छोटी सी समस्या को सोचते हुए कि उसे कैसे पेश किया जाए यही सोचता हुआ एक तरफ शब्दों का ताना-बाना बुन रहा है वहीं दूसरी तरफ दुआ कर रहा है कि इस समस्या पर उससे पहले किसी और का ध्यान ना जाए,,, खैर, उसका नंबर आया और वह खड़ा होकर बोलने लगा।
"आदरणीय प्राचार्य जी मैं आपका ध्यान हमारे महाविद्यालय की उस समस्या की तरफ आकृष्ट करना चाहूंगा, जिससे महाविद्यालय के प्रत्येक छात्र को प्रतिदिन एक बार नहीं, दो बार नहीं, बल्कि कई-कई बार रूबरू होना पड़ता है। जी हां मैं बात कर रहा हूं इस कॉलेज के स्टूडेंट्स टॉयलेटस् की,,,। जहां प्रवेश करते समय सबसे पहले टूटा हुआ दरवाजा हमारा स्वागत करता है। रुकी हुई नालियों से ओवर फ्लो होकर फर्श पर बहते हुए पेशाब की बदबू नाक में जलन पैदा करते हुए दिलों दिमाग पर इस कदर छा जाती है कि कई घंटों तक उस बदबू का एहसास मिटता ही नहीं है। दीवारों पर चाक और कोयले से लिखे हुए उन महान वाक्यों को अगर कोई बहन बेटी पढ़ ले तो शायद शर्म से धरती में समा जाए। वहीं एक तरफ हाथ धोने के लिए लगे हुए नलों के अवशेष देखकर लगता है कि शायद हड़प्पा सभ्यता के समय इनसे भी कभी पानी टपकता होगा। दीवारों पर थूके हुए गुटखे, मकड़ी के जाले, इधर-उधर फैले कचरे के ढेर और काली-मटमैली दीवारें,,,,ऐसा लगता है किसी डरावनी फिल्म के सेट से गुज़र कर आ रहे हैं। आदरणीय प्राचार्य जी आशा है आप हमारी पीड़ा को समझेंगे। धन्यवाद।"
जी स्वयं खड़े होकर ताली बजाने लगे। और मुस्कुराते हुए बोले- "बेटे! ये प्रोब्लम शायद इतनी बड़ी तो नहीं थी जितनी तुमने बना दी, पर मुझे तुम्हारा अंदाज़-ए-बयां पसंद आया। मैं वादा करता हूँ कि और कुछ हो ना हो एक महीने के भीतर कॉलेज के टोयलेट्स का रिनोवेशन जरूर होगा।"
और सच में कोई बीस दिन बाद ही कॉलेज के टायलेट्स की फिज़ा बदल चुकी थी।
तो दोस्तों! ये होता है अंदाज़-ए-बयां का असर,,,, इसके लिए ज्यादा कुछ नहीं करना पड़ता बस,,, किसी भी मौके पर बोलने से पहले थोड़ा सा सोचना पड़ेगा। क्या कहना है ? और कैसे कहना है ? थोड़ा सा शब्दों का ताना-बाना बुन लिजिए, थोड़ा सा अच्छे शब्दों का चयन कर लीजिए और देखिए कैसे हर तरफ से वाह- वाह की गूंज सुनाई देती है। आशा करता हूँ ये सच्चा वाकिया सुनकर आप अंदाज़-ए-बयां (बोलने के तरीके) का महत्व समझते हुए आज और अभी से छोटे-छोटे मौकों पर भी अपने बोलने के तरीके के बारे में सोचना शुरू कर देंगे।
आपका स्नेहाकांक्षी-
✍ सांवर चौधरी
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आपके संबल हेतु हार्दिक धन्यवाद।